बारिश की बूंदे
आंखें मूंदे चली आ रही धरती पर…
ठीक वैसे ही, जैसे मैं चला आता हूं, तुम्हारे दर पर
बूंदों को क्या मालूम, कहां गिरेगी
नदी, तालाब, झरना या मरूस्थल पर…
कुछ भी, कहीं भी हो सकता है, किसका यहां ठीकाना
लेकिन मुझे मालूम है, कहां है मुझे जाना …

मैं नहीं चाहता बूंदों की तरह कहीं भी गिर और बह जाना
मैं चाहता हूं हर पल हो साथ तुम्हारा…
ख्याल करके तुझे ढुढने निकल पड़ता हूं
तुम हो कहां और कहां नहीं हो…
लेकिन तुम देखो न तुम मुझसे दूर कहां हो
लौट आता हूं, उसी जगह जहां मिले थे हम आखिरी बार
और तुमने किये थे वादे कई बार…..
।। अनूप कुमार त्रिपाठी।।

